दस महीने का मेरा बेटा ‘‘कान्हा’’ अब ठुमक-ठुमक कर चलने लगा है। उसे चलता देखकर मैं काफी खुश होता हूं। साथ ही मेरी आंखों से आंसू भी बहते है, क्योकि मेरी तरह ही मेरे पिता भी सोचते है। वे आज मुझे अपने पैरों पर खड़ा देखकर खुश हैं, और इसी खुशी की वजह से उनकी आंखे भी कभी-कभी नम हो जाती है। अपने प्यारे पापा को समर्पित ये कविता

छोड़ते हो धीरे से, चलते हुएहाथ
और मुझे देते हो, जीवन कीसौगात।
लड़खड़ाऊ जब कभी मैं, तबथामते हो आप
पापा सबसे प्यारे हो आप....

अपने शब्दों से आप, मुझे देते हैउत्साह
डटकर जीवन जीने की, देते हैं सलाह।
हारकर बिखर जाता हूं, तब समेटते हो आप
पापा सबसे प्यारे हो आप....


वृक्ष रूप से मुझ पर छाया, धरते हो आप
आसमान के सितारों से भी ज्यादा प्रेम करते हो आप।
सफलता पाऊं मैं तब, झूमते हो आप
मेरे प्यारे पापा, दुनिया में सबसे प्यारे हो आप .....

आपके जन्मदिन की शुभ वेला,
लगा बहारों का है मेला।

आपकी खुशियों से खुश होकर,
मौसम भी लगता अलबेला।।

चंदा बरसाता है चंदनिया,
चांदी-सा चमके हर कोना।

चमक-चमककर दमक-दमककर,
सूरज बरसाता है सोना।।

छम-छम बूंदें बरस रही हैं,
सब कहते हैं आई वर्षा।

मेरा मत है शुभ अवसर पर,
परमपिता का मन भी हर्षा।।

महक रहा है उपवन सारा,
महक रहीं खुशियों से कलियां।

अमराई में कोयल गाए,
गूंज से गुंजित सारी गलियां।।

धरती लाई भेंट धैर्य की,
अंबर में आशा का मेला।

सागर ने मोती वारे हैं,
आई कितनी प्यारी वेला ।।

यूं ही जन्मदिन आता रहे,
हर वर्ष आपको हर्षाता रहे।

जीवन हो मस्ती से पूरित,
गीत खुशी के गाता रहे।।

शास्त्रों ने विद्यादान को महादान की श्रेणी में रखा है, किन्तु यदि आधुनिक युग के परिपेक्ष्य में दृष्टिपात करें तो इस बात पर बहुमत सहमत होगा कि विद्यादान के साथ साथ यदि इसमें नेत्रदान को भी जोड़ दिया जाए तो कोई अतिशयोक्ति होगी।


आज हमारे समाज इस विषय में बहुत सी भ्रांतियां हैं कि नेत्रदान करना चाहि अथवा नहीं। आज जब विज्ञान ने लगभग सारे कृत्रिम अंगो का निर्माण कर लिया है तब केवल कुछ अंग ऐसे हैं जिनका निर्माण विज्ञान नहीं कर पाया और उनमे से एक है नेत्र। इसका केवल एक ही उपाय है-नेत्रदान। मैं समझता हूँ कि यदि हम नेत्रदान करते हैं तो न केवल एक व्यक्ति को संसार देखने लायक बनाते हैं, बल्कि एक परिवार को रोटी देते हैं, समाज से एक भिखारी कम करते हैं और देश को दृष्टि देते हैं, क्योकि इस अमूल्य निधि को मृत शरीर के साथ जलाने का कोई लाभ नहीं।
आज सभ्य देश और समाज इस बात को पूर्ण रूप से आत्मसात कर चुके हैं कि नेत्रदान न केवल हमारा नैतिक उत्तरदायित्व होना चाहिए बल्कि नियमानुसार अनिवार्य होना चाहिए। एक बात बताना चाहता हूं जो लोग कहते हैं कि नेत्रदान से अंग भंग होता है और मृतक को स्वर्ग की प्राप्ति नहीं होती, मेरे हिसाब से ऐसे लोग आँख से नहीं वरन् जेहन से अंधे हैं।


" न किसी हमसफ़र से न हमनशीं से निकलेगा
हमारे पैर का कांटा हमीं से निकलेगा "

राजस्थान के नागौ जिले के छोटे से गांव चुंटीसरा में रहने वाली सरस्वती के बचपन से ही दोनों हाथ नहीं है, फिर भी उसने अपनी मोहताजगी को कभी खुद पर हावी नहीं होने दिया है। सरस्वती के मुतबिक भले ही कुदरत ने उसके साथ न्याय नही किया मगर वो पढाई के बाद मजिस्ट्रेट बनकर जनता को न्याय दिलाना चाहती है।
आज सरस्वती के संबंध में इसीलिए बात की जा रही है, क्योकि भारत वर्ष में आज विद्यादायिनी सरस्वती की जगह-जगह पूजा होगी। इन सबसे हटकर बात करें तो नागौर के चुंटीसरा गांव की सरस्वती भी अपने आप में कुछ कम नहीं है। बचपन से ही दोनो हाथ नही होने के बाद भी उसने हिम्मत हारकर एमए पास किया है और वो भी अंग्रेजी विषय से।
सरस्वती अपने पैरों से लिखने के साथ साथ पैंटिंग, सिलाई सहित अन्य सभी काम कर लेती हैं। सरस्वती को पैर से लिखते देखकर सहसा पहली बार कई लोग हैरान होते हैं। लोग सोंचते है कि ये पैर से क्यों लिख रही है, लेकिन इसके पीछे की हकीकत कुछ और है। सरस्वती के बचपन से दोनो हाथ नही है बिना हाथों के भी ये जिंदगी से दो-दो हाथ करने का माद्दा रखती हैं। एक वक्त ऐसा था जब स्कूल स्टाफ ने सरस्वती को एडमिशन देने से साफ इंकार कर दिया था, लेकिन जब सरस्वती ने पैर से लिखकर दिखाया तो सब लोगों की बोलती बंद हो गई।
सरस्वती अपने पैर से सिर्फ लिखती ही नही बल्कि, एक आम इंसान की मानिंद सभी काम कर लेती है। पैर से मोती जैसे अक्षर लिखने वाली कलम को रफ्तार से चलाने वाली सरस्वती की मंजिल यहीं खत्म नही होती, बल्कि वह एमए के बाद एलएलबी करने का इरादा भी रखती हैं और फिर मजिस्ट्रेट बनना चाहती है।
एक तरह से देखा जाए तो भारत देश में विकलांगता अभिशाप मानी जाती है, लेकिन अगर शारीरिक रूप से विकलांग बच्चों पर ध्यान दिया जाए तो वे भी सामान्य बच्चों की तरह जीवन जीने का प्रयास कर सकते है। सरस्वती की शिकायत है कि विकलांग विधार्थियों को फीस मे छूट मिलती है लेकिन इन्हे कभी भी इस योजना का लाभ नही मिल पाया।
सरस्वती के हौसले की सभी तारीफ करते हैं। सच तो है, अपने चेहरे पर हमेशा मुस्कुराहट रखने वाली सरस्वती अपने दिल का दर्द कभी चेहरे पर नही आने देती। कुदरत ने भले ही सरस्वती को हाथ नही दिए मगर ऐसी हिम्मत दी, ऐसा जज्बा दिया कि बगैर हाथ होते हुए भी वह अपनी मंजिल के करीब पहुंचती जा रही है। सरस्वती हम सबके लिए यकीनन एक मिसाल है।